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कौन है भद्रा?

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कौन है भद्रा?

    जन्म लेते ही भद्रा यज्ञों में विघ्न-बाधा पहुंचाने लगी और मंगल कार्यों में उपद्रव करने लगी तथा सारे जगत को पीड़ा पहुंचाने लगी। उसके स्वभाव को देखकर सूर्यदेव को उसके विवाह की चिंता होने लगी और वे सोचने लगे कि इसका विवाह कैसे होगा? सभी ने सूर्यदेव के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया। सूर्यदेव ने ब्रह्माजी से उचित परामर्श मांगा। ब्रह्माजी ने तब विष्टि से कहा कि- 'भद्रे! बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो तथा जो व्यक्ति तुम्हारे समय में गृह प्रवेश तथा अन्य मांगलिक कार्य करे, तो तुम उन्हीं में विघ्न डालो। जो तुम्हारा आदर न करे, उनका कार्य तुम बिगाड़ देना।' इस प्रकार उपदेश देकर ब्रह्माजी अपने लोक चले गए। तब से भद्रा अपने समय में ही देव-दानव-मानव समस्त प्राणियों को कष्ट देती हुई घूमने लगी।
भद्रा भगवान सूर्य नारायण और पत्नी छाया की कन्या व भगवान शनि की बहन है दैत्यों को मारने के लिए भद्रा गर्दभ के मुख और लंबी पूंछ और 3 पैरयुक्त उत्पन्न हुई। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भद्रा का स्वभाव भी शनि की तरह है।

भद्राकाल ?

ब्रह्मा जी ने भद्रा को पंचांग में विशेष स्थान प्रदान किया है।भद्राकाल प्रारंभ होता है तो इसमें शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं। यहां तक कि यात्रा भी नहीं करनी चाहिए। इसके साथ ही भद्राकाल में राखी बांधना भी शुभ नहीं माना गया है। मान्यता के अनुसार चंद्रमा की राशि से भद्रा का वास तय किया जाता है। गणना के अनुसार चंद्रमा जब कर्क राशि, सिंह राशि, कुंभ राशि या मीन राशि में होता है। तब भद्रा का वास पृथ्वी में निवास करके मनुष्यों को क्षति पहुंचाती है। वहीं मेष राशि, वृष राशि, मिथुन राशि और वृश्चिक राशि में जब चंद्रमा रहता है तब भद्रा स्वर्गलोक में रहती है एवं देवताओं के कार्यों में विघ्न डालती है। जब चंद्रमा कन्या राशि, तुला राशि, धनु राशि या मकर राशि में होता है तो भद्रा का वास पाताल लोक में माना गया है। भद्रा जिस लोक में रहती है वहीं प्रभावी रहती है

भद्रा????मुहूर्त

मुहूर्त की बात करते हैं तो सबसे पहले हमारे मन में भद्रा का नाम आता है। मुहूर्त के अंतर्गत भद्रा का विचार मुख्य रूप से किया जाता है क्योंकि यह वास्तव में स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक तथा पाताल लोक में अपना प्रभाव दिखाती है। इसलिए किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए भद्रा वास का विचार किया जाता है

भद्रा की गणना तिथि, वार, योग, नक्षत्र और करण मुहूर्त के अंतर्गत पंचांग के मुख्य भाग हैं। इनमें करण एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है। कुल मिलाकर 11 करण होते हैं, जिनमें से चार करण शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न अचर होते हैं और शेष सात करण बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि चर होते हैं। इनमें से विष्टि करण को ही भद्रा कहा जाता है। चर होने के कारण ये सदैव गतिशील होती है। जब भी पंचांग की शुद्धि की जाती है तो उस समय भद्रा को विशेष महत्व दिया जाता है।

भद्रा का वास कैसे ज्ञात किया जाता है। कुम्भ कर्क द्वये मर्त्ये स्वर्गेऽब्जेऽजात्त्रयेऽलिंगे। स्त्री धनुर्जूकनक्रेऽधो भद्रा तत्रैव तत्फलं।। भद्रा स्वर्ग लोक

जब चंद्रमा मेष, वृषभ, मिथुन और वृश्चिक राशि में होता है तो भद्रा स्वर्ग लोक में मानी जाती है और उर्ध्वमुखी होती है।उर्ध्वमुखी होने के कारण भद्रा का मुंह ऊपर की ओर होगा भद्रा शुभ प्रभाव लेगी

 भद्रा का वास पाताल

जब चंद्रमा कन्या, तुला, धनु और मकर राशि में होता है तो भद्रा का वास पाताल में माना जाता है और ऐसे में भद्रा अधोमुखी होती है। अधोमुखी होने के कारण नीचे की तरफ भद्रा शुभ प्रभाव लेगी

पृथ्वी लोक

वहीं जब चंद्रमा कर्क, सिंह, कुंभ और मीन राशि में स्थित होता है तो भद्रा का निवास भूलोक अर्थात पृथ्वी लोक पर माना जाता है और ऐसे में भद्रा सम्मुख होती है इसके साथ ही सम्मुख होने पर भद्रा पूर्ण रूप से प्रभाव दिखाएगी यही अवधि पृथ्वी लोक पर किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए वर्जित मानी जाती है, क्योंकि ऐसे में किए गए कार्य या तो पूर्ण नहीं होते या उनके पूर्ण होने में बहुत अधिक विलंब और रुकावटें आती हैं।

स्वर्गे भद्रा शुभं कुर्यात पाताले च धनागम। मृत्युलोक स्थिता भद्रा सर्व कार्य विनाशनी ।। संस्कृत ग्रंथ पियूष धारा के अनुसार जब भद्रा का वास स्वर्ग लोक पाताल लोक में होगा तब वह पृथ्वी लोक पर शुभ फल प्रदान करने में सक्षम होगी।

स्थिताभूर्लोस्था भद्रा सदात्याज्या स्वर्गपातालगा शुभा। मुहूर्त मार्तण्ड के अनुसार जब भी भद्रा भूलोक में होगी तो उसका सदैव त्याग करना चाहिए और जब वह स्वर्ग तथा पाताल लोक में हो तो शुभ फल प्रदान करने वाली होगी।

 

भद्रा मुख तथा भद्रा पुच्छ भद्रा के वास्तु के अनुसार ही उसका फल मिलता है।

 
शुक्ल पूर्वार्धेऽष्टमीपञ्चदशयो भद्रैकादश्यांचतुर्थ्या परार्द्धे। कृष्णेऽन्त्यार्द्धेस्या तृतीयादशम्योः पूर्वे भागे सप्तमीशंभुतिथ्योः।।
अर्थात शुक्ल पक्ष की अष्टमी तथा पूर्णिमा के पूर्वार्ध में और एकादशी कथा चतुर्थी के उत्तरार्ध में भद्रा होती है। कृष्ण पक्ष की तृतीया तथा दशमी के उत्तरार्ध में और सप्तमी तथा चतुर्थी के पूर्वार्ध में भद्रा होती है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि एक पहर 3 घंटे का होता है। जिसके अनुसार एक दिन और एक रात में कुल मिलाकर आठ पहर होते हैं यानी कि 24 घंटे। उपरोक्त तालिका में बताए हुए पहर के पहले 2 घंटे अर्थात 5 घड़ी भद्रा का मुख होता है तथा उसे शुभ माना जाता है। दूसरी ओर ऊपरी तालिका में ही बताए हुए पहर के अंत का एक घंटा 15 मिनट यानि कि तीन घड़ी भद्रा की पुच्छ होती है। चंद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि की पांचवें प्रहर की 5 घड़ियों में भद्रा मुख होता है, अष्टमी तिथि के दूसरे प्रहर के कुल मान आदि की 5 घटियाँ, एकादशी के सातवें प्रहर की प्रथम 5 घड़ियाँ तथा पूर्णिमा के चौथे प्रहर के शुरुआत की 5 घड़ियों में भद्रा का मुख होता है। इसी प्रकार चंद्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया के 8वें प्रहर आदि की 5 घड़ियाँ भद्रा मुख होती है, कृष्ण पक्ष की सप्तमी के तीसरे प्रहर में आरंभ की 5 घड़ी में भद्रा मुख होता है। इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि का 6 प्रहर और चतुर्दशी तिथि का प्रथम प्रहर की 5 घड़ी में भद्रा मुख व्याप्त रहता है। भद्रा की पुच्छ शुभ होने के कारण इसमें किसी भी प्रकार का शुभ कार्य कर सकते हैं। तिथि के उत्तरार्ध में होने वाली भद्रा यदि दिन में हो और किसी के पूर्वार्ध में होने वाली भद्रा यदि रात में हो तो शुभ मानी जाती है।   कार्येत्वाश्यके विष्टेरमुख, कण्ठहृदि मात्रं परित्येत। अर्थात बहुत अधिक आवश्यक होने पर पृथ्वीलोक की भद्रा, कंठ, ह्रदय और भद्रा मुख को त्याग कर भद्रा पुच्छ में शुभ एवं मांगलिक कार्य संपन्न किये जा सकते हैं। ईयं भद्रा शुभ-कार्येषु अशुभा भवति। अर्थात किसी भी शुभ कार्य में भद्रा अशुभ मानी जाती है। हमारे ऋषि मुनियों ने भी भद्रा काल को अशुभ तथा दुखदायी बताया है:—

मांगलिक कार्यों को नहीं करना

भद्रा काल के दौरान मुख्य रूप से मुंडन संस्कार, विवाह संस्कार, गृहारंभ, कोई नया व्यवसाय आरंभ करना, गृह प्रवेश, शुभ यात्रा, शुभ उदेश्य से किए जाने वाले सभी कार्य तथा रक्षाबंधन आदि मांगलिक कार्यों को नहीं करना चाहिए।

भद्रा के दौरान किये जाने वाले कार्य लगभग सभी शुभ कार्यों के लिए भद्रा का निषेध माना गया है। लेकिन कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिनकी प्रकृति अशुभ होती है, ऐसे कार्य भद्रा काल के दौरान किए जा सकते हैं। इनमें मुख्य रूप से शत्रु पर आक्रमण करना, अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करना, ऑपरेशन करना, किसी पर मुकदमा आरंभ करना, आग जलाना, भैंस, घोड़ा, ऊँट आदि से संबंधित कार्य तथा किसी वस्तु को काटना, यज्ञ करना तथा स्त्री प्रसंग करना आदि कार्य इसमें सम्मिलित हैं। यदि इन कार्यों को भद्र काल के दौरान किया जाए तो इनमें मनोवांछित सफलता मिल सकता हैं।

भद्रा का परिहार 
सर्वप्रथम यह ज्ञात किया जाता है कि भद्रा का वास कहां है। यदि भद्रा स्वर्ग लोक अथवा पाताल लोक में है तो परिहार की आवश्यकता नहीं होती केवल मृत्यु लोक में अर्थात पृथ्वी लोक पर भद्रा का वास होने पर विशेष रूप से हानिकारक माना जाता है और इसीलिए इसका परिहार किया जाता है। साथ ही साथ भद्रा के मुख और पुच्छ का विचार भी किया जाता है। भद्रा के परिहार के लिए सबसे अधिक प्रभावी भगवान शिव की आराधना करना माना जाता है। इसलिए यदि अत्यंत आवश्यक कोई कार्य आपको भद्रा वास के दौरान करना हो तो भगवान शिव की अराधना अवश्य करें।  

दिवा भद्रा रात्रौ रात्रि भद्रा यदा दिवा। न तत्र भद्रा दोषः स्यात सा भद्रा भद्रदायिनी।।

इसका तात्पर्य यह है कि यदि दिन के समय की भद्रा रात्रि में और रात्रि के समय की भद्रा दिन में आ जाए, तो ऐसी स्थिति में न भद्रा का दोष नहीं लगता है। विशेष रुप से हंसी भद्रा का दोष पृथ्वी लोक पर नहीं माना जाता है। इस प्रकार की भद्रा को भद्रदायिनी अर्थात शुभ फल देने वाली भद्रा माना जाता है। आप भद्रा के दुष्प्रभावों से बचना चाहते हैं, तो आपको प्रातः काल उठकर भद्रा के निम्नलिखित 12 नामों का स्मरण तथा जाप करना चाहिए:

भद्रा के यह बारह नाम इस प्रकार हैं १- धन्या २- दधिमुखी ३- भद्रा ४ महामारी ५- खरानना ६- कालरात्रि ७- महारुद्रा ८- विष्टि ९- कुलपुत्रिका १०- भैरवी ११- महाकाली १२- असुरक्षयकारी

यदि आप पूरी निष्ठा तथा विधि पूर्वक भद्रा का पूजन करते हैं और भद्रा के उपरोक्त 12 नामों का स्मरण कर उनकी पूजा करते हैं तो भद्रा का कष्ट आपको नहीं लगता और आपके सभी कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं।।

तिथे पूर्वार्धजा रात्रौ दिन भद्रा परार्धजा। भद्रा दोषो न तत्र स्यात कार्येsत्यावश्यके सति।।

अर्थात यदि आपको कोई अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य करना है तो ऐसी स्थिति में उत्तरार्ध के समय की भद्रा दिन में तथा पूर्वार्ध के समय की भद्रा रात्रि में हो तब इसे शुभ ही माना गया है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि यदि कभी भी आपको भद्रा के दौरान कोई शुभ कार्य करना आवश्यक हो जाए तो पृथ्वी लोक की भद्रा तथा भद्रा मुख-काल को छोड़कर तथा स्वर्ग व पाताल की भद्रा के पुच्छ काल में शुभ तथा मांगलिक कार्य संपन्न किए जा सकते हैं क्योंकि ऐसी स्थिति में भद्रा का परिणाम शुभ फलदायी होता है।  

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