दान का महत्व – विभिन्न दृष्टिकोणों से:
धार्मिक दृष्टि से: • वेद, पुराण, भगवद गीता और उपनिषदों में दान को जीवन का आवश्यक कर्तव्य बताया गया है। • भगवद गीता (अध्याय 17) में कहा गया है: “दानं सतां भवति” – सत्पुरुषों का स्वभाव ही दान करना होता है। • तैत्तिरीय उपनिषद में दान का मंत्र है – “श्रद्धया देयं, अश्रद्धया अदेयं” (श्रद्धा से दिया गया दान ही फलदायी होता है)
आध्यात्मिक दृष्टि से: • दान अहंकार का विनाश करता है और वैराग्य का बीज बोता है। • यह पुण्य संचय का माध्यम है और जन्म-जन्मांतर के पापों का क्षय करता है। • दान देने से व्यक्ति को आत्मिक संतोष और चिंतन की शांति प्राप्त होती है।
सामाजिक दृष्टि से: • दान समाज में समानता और सहयोग की भावना को बढ़ाता है। • यह गरीबी, अशिक्षा, और असमानता को कम करने में सहायक है। • दानदाता को समाज में सम्मान, विश्वास और नेतृत्व प्राप्त होता है।
कर्म सिद्धांत के अनुसार: • जैसा कर्म करोगे, वैसा फल मिलेगा। दान सकारात्मक कर्मों में गिना जाता है। • कहा गया है: “दानं हि धर्मस्य मूलं” (दान ही धर्म का मूल है)
दान करते समय ध्यान देने योग्य बातें: 1. निष्काम भाव से करें – फल की आशा न रखें। 2. सच्चे पात्र को दें – जो जरूरतमंद हो और योग्य भी। 3. सम्मान और नम्रता से दें – दान करते समय अहंकार नहीं। 4. गुप्त रूप से देना श्रेष्ठ माना गया है – दिखावे के लिए नहीं।
“अन्नदानं परं दानं विद्यादानं ततः परम्। अन्नेन क्षणिका तृप्तिः, विद्या तृप्ति यावत् जीवम्॥”
अर्थ: अन्नदान महान है, पर विद्या का दान उससे भी महान है। अन्न से क्षणभर की तृप्ति होती है, पर विद्या जीवनभर तृप्त करती है।