गणेश चतुर्थी की तिथि
सुख-समृद्धि के प्रतीक, विघ्न विनाशक, सिद्धि विनायक, बुद्धि के अधिदेवता, अग्र पूज्य, वक्रतुण्ड, महोदर, लंबोदर आदि अपने गुण, प्रभाव और रूप से जाने जाने वाले श्रीगणेश का इस बार मंगलवार १९ सितंबर स्वाती नक्षत्र, ध्वज योग, पराक्रम योग साथ सूर्य-बुध के परिवर्तन योग के होते भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को श्रीगणेश जन्मोत्सव है, जो गुरुवार २८ सितंबर २०२३ अनंत चतुर्दशी तक दस दिनों के लिए मनाया जाएगा।
लग्न सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त
वृश्चिक जो कि स्थिर लग्न है; १९ सितंबर के दिन सुबह १० बजकर ५४ मिनट से दोपहर ०१ बजकर १० मिनट तक रहेगा। इस सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त में आप पूरे मान-सम्मान, हर्षोल्लास और ढोल-नगाड़ों के साथ गणपति को अपने घर लाकर विराजमान करें और विधि-विधान से पूजा करें। शुभ संयोगों के संगम में निश्चित आपकी मनोकामना पूर्ण होकर धन-सम्पदा और खुशियों का खजाना आपके घर ले आएं।
गणेश चतुर्थी व्रत एवं पूजन की विधि
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गणेश चतुर्थी के दिन भगवान गणेश का पूजन और व्रत किया जाता हैं। इस दिन घर के पूजास्थान और घर के द्वार पर स्थापित गणेश जी की प्रतिमा की पूजा जाती हैं।
1. गणेश चतुर्थी के दिन प्रात: काल स्नानादि नित्य कर्मो से निवृत्त होकर सोने, चाँदी, तांबे, संगमरमर या मिट्टी की गणेश की मूर्ति लें और यदि आपके घर में पूजास्थान पर पहले से ही मूर्ति स्थापित हो तो उसी मूर्ति की पूजा करें।
2. एक चौकी लेकर उसपर कपड़ा बिछाकर एक कलश में जल भरकर रखें।
3. उस चौकी पर एक छोटे पाटे पर या थाल पर गणेश जी की प्रतिमा को विराजमान करें।
4. गणेश जी के प्रतिमा पर सर्वप्रथम दूध चढायें। फिर जल चढ़ायें।
5. अगर आपके पास संगमरमर या मिट्टी की गणेश जी की प्रतिमा हो तो उसपर सिंदूर और घी को मिलाकर लेप (चोला चढ़ाये) करें और चाँदी का बर्क लगायें। रोली चावल से तिलक करें। वस्त्र चढ़ायें। और अगर धातु की प्रतिमा हो तो उस पर थोड़ा सा सिंदूर लगाकर रोली चावल से तिलक करके वस्त्र चढ़ायें।
6. गणेश जी को जनेऊ चढ़ायें।
7. तत्पश्चात गणेश जी को दूर्वा अर्पित करें और पुष्प अर्पित करें।
8. लकड़ी या चाँदी के ड़ण्के गणेश जी को अर्पित करें।
9. फिर गणेशजी को गुड़धानी (गुड़ या चीनी की) और लडडुओं का भोग चढ़ायें।
10. इसके बाद गणेश चतुर्थी की कहानी एवं महात्म्य का पाठ करें या सुनें।
11. तत्पश्चात गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ करें, गणेश गायत्री मंत्र का जाप करके गणेश जी की आरती गायें।
12. इस सबके बाद भगवान गणेश जी की तीन परिक्रमा लगायें। अगर परिक्रमा करने के लिये जगह ना हो तो अपनी जगह पर ही तीन बार घूम लें।
13. इस दिन इस बात का ध्यान रखें कि आप चंद्रमा के दर्शन नही करें। क्योकि इस दिन चंद्रमा के दर्शन करने से मिथ्या कलंक दोष लगता हैं।
इस चतुर्थी को कलंक चौथ भी कहा जाता है।
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धार्मिक मान्यता के अनुसार गणेश चतुर्थी के दिन भगवान गणेश का जन्म हुआ था। इस गणेश चौथ को कलंक चौथ भी कहा जाता है।
गणेश चतुर्थी पर चंद्र दर्शन के दोष निवारण के उपाय
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हिंदु मान्यता के अनुसार गणेश चतुर्थी के दिन चंद्र दर्शन नहीं करने चाहिए क्योकि इस दिन चंद्रमा के दर्शन करने वाला कलंक का भागी होता हैं। यदि कोई गलती से चन्द्रमा का दर्शन कर ले तो उसे इस दोष का निवारण करने के लिये इस मंत्र का 54 बार या 108 बार जाप करना चाहिये।
सिंह प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः॥
ऐसा करने से चंद्रमा देखने के दोष का निवारण होता हैं।
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चन्द्र दर्शन के दोष के निवारण के लिये स्यमंतक मणि की कहानी भी कही या सुनी जा सकती हैं। ऐसी मान्यता है कि स्यमंतक मणि की कहानी सुनने से गणेश चतुर्थी पर चंद्रमा देखने से जो दोष लगता है उसका निवारण हो जाता हैं।
गणेश चतुर्थी की पूजा में गलती से भी यह ना करें
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गणेश जी पर तुलसी पत्र नही चढ़ाया जाता। इसीलिये इस बात का विशेष रूप से ख्याल रखें और गणेश जी को तुलसी का पत्ता अर्पित ना करें।
जैसा की उपरोक्त में लेख है की चंद्रमा का दर्शन ना करें। गणेश जी के श्राप के कारण इस दिन चंद्र दर्शन करने वाले को कलंक लगता हैं।
गणेश चतुर्थी की कथा
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पौराणिक कथा के अनुसार एक समय भगवान शंकर कैलाश पर्वत से किसी कार्यवश अन्यत्र कही गये हुये थे। तब भगवान शंकर के वहाँ ना होने के कारण माता पार्वती ने सुरक्षा के लिये अपने शरीर के मैल से एक पुतला बनाया और उसमें प्राण ड़ालकर उसे जीवित कर दिया। फिर उन्होने जो पुतला बनाया उसका नाम गणेश रखा। माता पार्वती ने गणेश जी को मुदग्ल देकर उन्हे बाहर पहरा देने को कहा। माता पार्वती ने गणेश जी से कहा कि मैं स्नान के लिय जा रही हूँ, तुम किसी को अंदर प्रवेश मत करने देना।
भाग्यवश तभी भगवान शंकर वहाँ पर आ पहुँचे और अंदर जाने लगे तो गणेश जी ने उन्हे अंदर जाने से रोक दिया। इस पर भगवान शंकर को क्रोध आ गया और उन्होने अपने त्रिशूल से गणेश जी का मस्तक काट दिया। जब माता पार्वती को पता चला तो बहुत दुखी हुई और उन्हे बहुत क्रोध भी आया। उन्होने भगवान शंकर को बताया कि वो उनका पुत्र गणेश था और वो उन्ही की आज्ञा का पालन कर रहा था।
तब सभी देवता वहाँ आ गये और भगवान विष्णु जी एक नवजात हाथी के बच्चे का मस्तक लेकर आये। उस मस्तक को भगवान शंकर ने गणेश जी के धड़ पर लगा दिया। और उनमें पुन: प्राण फूँक दिये। तब कहीं जाकर माता पार्वती का दुख और क्रोध समाप्त हुआ।
गणेश चतुर्थी के विषय में प्रचलित अन्य कथा
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एक प्रचलित पौराणिक कथानुसार भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह को बहुत समय बीत चुका था, परंतु उनके कोई संतान नही हुई तब माता पार्वती ने भगवान श्री कृष्ण का व्रत किया और उस व्रत के प्रभाव से उन्हे पुत्र की प्राप्ति हुई। उन्होने उसका नाम गणेश रखा। सभी देवी देवता भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र के दर्शन के लिये वहाँ पहुँचे। तब शनि देव की दृष्टि से गणेश जी का मस्तक कट गया। तब भगवान विष्णु ने नवजात हाथी के बच्चे का सिर लाकर गणेश जी के धड़ से जोड़ कर उन्हे पुन: जीवित करा।
एक अन्य कथा के अनुसार भगवान परशुराम कैलाश पर्वत पर भगवान शिव और माता पार्वती के दर्शन हेतू पहुँचे। तब गणेश जी बाहर पहरा दे रहे थे और शंकर जी और पार्वती जी शयन कर रहे थे। गणेश जी ने परशुराम जी को बाहर ही रोक दिया। इस पर उन दोनों में युद्ध आरम्भ हो गया और परशुराम जी के परशु के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत कट गया। तब से गणेश जी को एकदंत भी कहा जाने लगा।
एक कथा के अनुसार गणेश चतुर्थी पर चंद्र दर्शन करने के कारण स्वयं भगवान श्री कृष्ण को भी स्यमंतक मणि की चोरी का कलंक लगा था। उस कलंक को हटाने के लिये उन्होने उस मणि को ढ़ूंढ़कर सत्राजित को दिया और उस मिथ्या कलंक से मुक्ति पायी।
गणेश जी से जुड़ी कुछ बातें
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गणेश जी की पूजा के बिना किसी भी शुभ कार्य का आरम्भ नही किया जाता। शास्त्रों के अनुसार सबसे पहले गणेश जी की पूजा की जाती हैं।
वैदिक काल से गणेश जी की पूजा होती रही हैं। गणेश जी के मंत्रो का उल्लेख हमको ऋग्वेद-यजुर्वेद में भी मिलता हैं।
हिन्दू धर्म के पाँच प्रमुख देवताओं में भगवन शिव, भगवान विष्णु, भगवान सूर्य, माता दुर्गा के साथ भगवान गणेश जी भी हैं।
गणेश शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, गण + ईश। ‘गण’ शब्द का अर्थ होता है – वृंद, समुदाय, समूह, आदि और ‘ईश’ शब्द का अर्थ होता है – ईश्वर, मालिक, स्वामी, आदि।
गणेश जी के पिता शंकर जी, माता पार्वती जी, भाई कार्तिकेय जी, पत्नियाँ ऋद्धि-सिद्धि और पुत्र शुभ और लाभ हैं।
शास्त्रों में वर्णित भगवान गणेश के 12 नाम:
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1. सुमुख, 2. एकदंत, 3. कपिल, 4. गजकर्ण, 5. लम्बोदर, 6. विकट, 7. विघ्नविनाशन, 8. विनायक, 9. धूमकेतु, 10. गणाध्यक्ष, 11. भालचंद्र, 12. गजानन।
महाकाव्य महाभारत के वक्ता वेदव्यास जी थे और उसको लिखा भगवान गणेश ने था।
गणेश चतुर्थी का महत्व
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हिंदु धर्म में गणेश जी का विशेष स्थान है। गणेश जी को सुखकर्ता, दुखहर्ता, मंगलकर्ता, विघ्नहर्ता, विघ्न-विनाशक, विद्या देने वाला, बुद्धि प्रदान करने वाला, रिद्धि-सिद्धि के दाता, सुख-समृद्धि, शक्ति और सम्मान प्रदान करने वाला माना जाता है। हर माह की कृष्णपक्ष की चतुर्थी को “संकष्टी गणेश चतुर्थी” और शुक्लपक्ष की चतुर्थी को “विनायक गणेश चतुर्थी” कहा जाता हैं। इन चतुर्थी पर भी भगवान गणेश की पूजा की जाती हैं। इन सब चतुर्थी में गणेश चतुर्थी बहुत महत्वपूर्ण और अत्यंत शुभ फलदायी हैं।
यदि गणेश चतुर्थी मंगलवार के दिन हो तो उसे अंगारक चतुर्थी कहा जाता हैं। इस दिन व्रत और पूजन करने जातक के सभी पापों का नाश हो जाता हैं।
श्रीएकदंतगणेशस्तोत्रम् ।।
श्रीगणेशाय नमः।
मदासुरं सुशान्तं वै दृष्ट्वा विष्णुमुखाः सुराः।
भृग्वादयश्च मुनय एकदन्तं समाययुः।।१।।
प्रणम्य तं प्रपूज्यादौ पुनस्तं नेमुरादरात्।
तुष्टुवुर्हर्षसंयुक्ता एकदन्तं गणेश्वरम्।।२।।
देवर्षय ऊचुः
सदात्मरूपं सकलादि-भूतम
मायिनं सोऽहमचिन्त्यबोधम्।
अनादि-मध्यान्त-विहीनमेकं
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।३।।
अनन्त-चिद्रूप-मयं गणेशं
ह्यभेद-भेदादि-विहीनमाद्यम्।
हृदि प्रकाशस्य धरं स्वधीस्थं
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।४।।
विश्वादिभूतं हृदि योगिनां वै
प्रत्यक्षरूपेण विभान्तमेकम्।
सदा निरालम्ब-समाधिगम्यं
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।५।।
स्वबिम्बभावेन विलासयुक्तं
बिन्दुस्वरूपा रचिता स्वमाया।
तस्यां स्ववीर्यं प्रददाति यो वै
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।६।।
त्वदीय-वीर्येण समर्थभूता
मायातया संरचितं च विश्वम्।
नादात्मकं ह्यात्मतया प्रतीतं
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।७।।
त्वदीय-सत्ताधरमेकदन्तं
गणेशमेकं त्रयबोधितारम्।
सेवन्त आपुस्तमजं त्रिसंस्थास्-
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।८।।
ततस्त्वया प्रेरित एव नाद
स्तेनेदमेवं रचितं जगद्वै।
आनन्दरूपं समभावसंस्थं
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।९।।
तदेव विश्वं कृपया तवैव
सम्भूतमाद्यं तमसा विभातम्।
अनेकरूपं ह्यजमेकभूतं
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।१०।।
ततस्त्वया प्रेरितमेव तेन
सृष्टं सुसूक्ष्मं जगदेकसंस्थम्।
सत्त्वात्मकं श्वेतमनन्तमाद्यं
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।११।।
तदेव स्वप्नं तपसा गणेशं
संसिद्धिरूपं विविधं वभूव।
सदेकरूपं कृपया तवाऽपि
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।१२।।
सम्प्रेरितं तच्च त्वया हृदिस्थं
तथा सुसृष्टं जगदंशरूपम्।
तेनैव जाग्रन्मयमप्रमेयं
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।१३।।
जाग्रत्स्वरूपं रजसा विभातं
विलोकितं तत्कृपया यदैव।
तदा विभिन्नं भवदेकरूपं
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।१४।।
एवं च सृष्ट्वा प्रकृतिस्वभावा
त्तदन्तरे त्वं च विभासि नित्यम्।
बुद्धिप्रदाता गणनाथ एकस्
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।१५।।
त्वदाज्ञया भान्ति ग्रहाश्च सर्वे
नक्षत्ररूपाणि विभान्ति खे वै।
आधारहीनानि त्वया धृतानि
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।१६।।
त्वदाज्ञया सृष्टिकरो विधाता
त्वदाज्ञया पालक एव विष्णुः।
त्वदाज्ञया संहरको हरोऽपि
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।१७।।
यदाज्ञया भूर्जलमध्यसंस्था
यदाज्ञयाऽपः प्रवहन्ति नद्यः।
सीमां सदा रक्षति वै समुद्रस्
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।१८।।
यदाज्ञया देवगणो दिविस्थो
ददाति वै कर्मफलानि नित्यम्।
यदाज्ञया शैलगणोऽचलो वै
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।१९।।
यदाज्ञया शेष इलाधरो वै
यदाज्ञया मोहप्रदश्च कामः।
यदाज्ञया कालधरोऽर्यमा च
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।२०।।
यदाज्ञया वाति विभाति वायु
र्यदाज्ञयाऽग्निर्जठरादिसंस्थः।
यदाज्ञया वै सचराऽचरं च
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।२१।।
सर्वान्तरे संस्थितमेकगूढं
यदाज्ञया सर्वमिदं विभाति।
अनन्तरूपं हृदि बोधकं वै
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।२२।।
यं योगिनो योगबलेन साध्यं
कुर्वन्ति तं कः स्तवनेन स्तौति।
अतः प्रणामेन सुसिद्धिदोऽस्तु
तमेकदन्तं शरणं व्रजामः।।२३।।
गृत्समद उवाच
एवं स्तुत्वा च प्रह्लाद देवाः समुनयश्च वै।
तूष्णीं भावं प्रपद्यैव ननृतुर्हर्षसंयुताः।।२४।।
स तानुवाच प्रीतात्मा ह्येकदन्तः स्तवेन वै।
जगाद तान् महाभागान् देवर्षीन् भक्तवत्सलः।।२५।।
एकदन्त उवाच
प्रसन्नोऽस्मि च स्तोत्रेण सुराः सर्षिगणाः किल।
वृणुध्वं वरदोऽहं वो दास्यामि मनसीप्सितम्।।२६।।
भवत्कृतं मदीयं वै स्तोत्रं प्रीतिप्रदं मम।
भविष्यति न सन्देहः सर्वसिद्धिप्रदायकम्।।२७।।
यं यमिच्छति तं तं वै दास्यामि स्तोत्रपाठतः।
पुत्र-पौत्रादिकं सर्वं लभते धन-धान्यकम्।।२८।।
गजाश्वादिकमत्यन्तं राज्यभोगं लभेद् ध्रुवम्।
भुक्तिं मुक्तिं च योगं वै लभते शान्तिदायकम्।।२९।।
मारणोच्चाटनादीनि राज्यबन्धादिकं च यत्।
पठतां शृण्वतां नृणां भवेच्च बन्धहीनता।।३०।।
एकविंशतिवारं च श्लोकांश्चैवैकविंशतिम्।
पठते नित्यमेवं च दिनानि त्वेकविंशतिम्।।३१।।
न तस्य दुर्लभं किंचित् त्रिषु लोकेषु वै भवेत्।
असाध्यं साधयेन् मर्त्यः सर्वत्र विजयी भवेत्।।३२।।
नित्यं यः पठते स्तोत्रं ब्रह्मभूतः स वै नरः।
तस्य दर्शनतः सर्वे देवाः पूता भवन्ति वै।।३३।।
एवं तस्य वचः श्रुत्वा प्रहृष्टा देवतर्षयः।
ऊचुः करपुटाः सर्वे भक्तियुक्ता गजाननम्।।३४।।
।। इति श्रीएकदन्तस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।