गुप्त नवरात्रि विशेष
महाकाली महाविद्या दीक्षा 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ नाम : माता कालिका शस्त्र : त्रिशूल और तलवार वार : शुक्रवार दिन : अमावस्या ग्रंथ : कालिका पुराण मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वरि कालिके स्वाहा
क्रीं ह्रीं ह्नुं दक्षिणे कालिके स्वाहा:।
मां काली के 4 रूप हैं:- दक्षिणा काली, शमशान काली, मातृ काली और महाकाली।
राक्षस वध : रक्तबीज।
महाविद्या काली पहली महाविद्या मानी जाती हैं जो माँ सती के शरीर से प्रकट हुई थी। इनका रूप अत्यंत भीषण व दुष्टों का संहार करने वाला हैं। माता सती ने क्रोधवश सबसे पहले अपने सबसे भीषण रूप को प्रकट किया था जो फुंफकार रही थी। देवताऔं और दानवों के बीच हुए युद्ध में ने ही देवताओं को विजय दिलवाई थी। सिद्धि प्राप्त करने के लिए माता के इस रूप की पूजा की जाती है। मां काली का उल्लेख और उनके कार्यों की रूपरेखा चंडी पाठ में दी गई हैवर्ण | काला |
केश | खुले हुए एवं अस्त-व्यस्त |
नेत्र | तीन |
हस्त | चार |
वस्त्र | नग्न अवस्था |
मुख के भाव | अत्यधिक क्रोधित व फुंफकार मारती हुई |
अस्त्र शस्त्र व् हाथों की मुद्रा | खड्ग, राक्षस की खोपड़ी, अभय मुद्रा, वर मुद्रा |
अन्य प्रमुख विशेषता | गले व कमर में राक्षसों की मुण्डमाल, जीभ अत्यधिक लंबी, एवं रक्त से भरी हुई |
कालीका के प्रमुख तीन स्थान है 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ कोलकाता में कालीघाट पर जो एक शक्तिपीठ भी है। मध्यप्रदेश के उज्जैन में भैरवगढ़ में गढ़कालिका मंदिर इसे भी शक्तिपीठ में शामिल किया गया है और गुजरात में पावागढ़ की पहाड़ी पर स्थित महाकाली का जाग्रत मंदिर चमत्कारिक रूप से मनोकामना पूर्ण करने वाला है।
यह तीव्र प्रतिस्पर्धा का युग है। आप चाहे या न चाहे विघटनकारी तत्व आपके जीवन की शांति, सौहार्द भंग करते ही रहते हैं। एक दृष्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्ति की अपेक्षा एक सरल और शांत प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के लिए अपमान, तिरस्कार के द्वार खुले ही रहते हैं। आज ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है, जिसका कोई शत्रु न हो … और शत्रु का तात्पर्य मानव जीवन की शत्रुता से ही नहीं, वरन रोग, शोक, व्याधि, पीडा भी मनुष्य के शत्रु ही कहे जाते हैं, जिनसे व्यक्ति हर क्षण त्रस्त रहता है … और उनसे छुटकारा पाने के लिए टोने टोटके आदि के चक्कर में फंसकर अपने समय और धन दोनों का ही व्यय करता है, परन्तु फिर भी शत्रुओं से छुटकारा नहीं मिल पाता। महाकाली दीक्षा के माध्यम से व्यक्ति शत्रुओं को निस्तेज एवं परास्त करने में सक्षम हो जाता है, चाहे वह शत्रु आभ्यांतरिक हों या बाहरी, इस दीक्षा के द्वारा उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, क्योंकि महाकाली ही मात्र वे शक्ति स्वरूपा हैं, जो शत्रुओं का संहार कर अपने भक्तों को रक्षा कवच प्रदान करती हैं। जीवन में शत्रु बाधा एवं कलह से पूर्ण मुक्ति तथा निर्भीक होकर विजय प्राप्त करने के लिए यह दीक्षा अद्वितीय है। देवी काली के दर्शन भी इस दीक्षा के बाद ही सम्भव होते है, गुरु द्वारा यह दीक्षा प्राप्त होने के बाद ही कालिदास में ज्ञान का स्रोत फूटा था, जिससे उन्होंने ‘मेघदूत’ , ‘ऋतुसंहार’ जैसे अतुलनीय काव्यों की रचना की, इस दीक्षा से व्यक्ति की शक्ति भी कई गुना बढ़ जाती है। काली माता का मंत्र: हकीक की माला से नौ मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।
तारा दीक्षा 〰️〰️〰️ भगवती तारा के तीन स्वरूप हैं तारा , एकजटा और नील सरस्वती
दूसरी महाविद्या सिद्धि से प्राप्त होती है, जिन्हे श्मशान तारा के नाम से भी पुकारा जाता है| जो व्यक्ति माँ तारा की आराधना करता है उसका जीवन सदैव खुशियों से भर जाता है। उस व्यक्ति को माँ तीव्र बुद्धि और रचनात्मक क्षमता प्रदान करतीं हैं। शत्रुओं को खत्म करने के लिए भी श्मशान माता की पूजा होती है। देवी के इस रूप की आराधना करने पर आर्थिक उन्नति और की प्राप्ति होती है। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में तारापीठ है इसी स्थान पर देवी तारा की उपासना महर्षि वशिष्ठ ने की थी और तमाम सिद्धियां हासिल की थी। तारा देवी का दूसरा प्रसिद्ध मंदिर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में स्थित है। इनका रूप भी भीषण व दुष्टों का संहार करने वाला हैं, इसलिए इन्हें के समान ही माना गया हैं। मातारानी के इस रूप ने भगवान शिव को स्तनपान करवाया था, इसलिए इन्हें शिव की माँ की उपाधि भी प्राप्त हैं। सतयुग में देव-दानवों के बीच हुए में जब अथाह मात्रा में विष निकला तो उसका पान महादेव ने किया किंतु विष के प्रभाव से उनके अंदर मूर्छा छाने लगी। तब ने तारा रूप धरकर उन्हें स्तनपान करवाया जिससे शिवजी पर विष का प्रभाव कम हुआ। शक्ति का यह स्वरूप सर्वदा मोक्ष प्राप्त करने वाला तथा अपने भक्तों को समस्त प्रकार से घोर संकटों से मुक्ति प्रदान करने वाला है। चैत्र मास की नवमी तिथि और शुक्ल पक्ष के दिन तंत्र साधकों के लिए सर्वसिद्धिकारक माना गया है।वर्ण | नीला |
केश | खुले हुए एवं अस्त-व्यस्त |
नेत्र | तीन |
हस्त | चार |
वस्त्र | बाघ की खाल |
मुख के भाव | आश्चर्यचकित व खुला हुआ |
अस्त्र शस्त्र व् हाथों की मुद्रा | खड्ग, तलवार, कमल फूल व कैंची |
अन्य प्रमुख विशेषता | गले में सर्प व राक्षस नरमुंडों की माला |
महाविद्या तारा मंत्र | ऊँ ह्नीं स्त्रीं हुम फट |
तारा माता का मंत्र नीले कांच की माला से बारह माला प्रतिदिन जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।

त्रिपुर सुंदरी महाविद्या
त्रिपुर सुंदरी महाविद्या इन्हें ललिता, राज राजेश्वरी और त्रिपुर सुंदरी भी कहते हैं। त्रिपुरा में स्थितत्रिपुर सुंदरी का शक्तिपीठ है। यहां पर माता की चार भुजा और 3 नेत्र हैं। इन्हें महाविद्या षोडशी के नाम से भी जाना जाता हैं क्योंकि इनकी आयु सोलह वर्ष की थी।
पहले दो रूपों में मातारानी ने अपने भीषण उग्र रूप प्रकट किये थे। तत्पश्चात उनका यह सुंदर रूप प्रकट हुआ जो अत्यंत ही सुखकारी व मन को मोह लेने वाला था। इनका प्राकट्य अपने भक्तों के मन से भय को समाप्त करने व अंतर्मन को शांति प्रदान करने वाला था।वर्ण | सुनहरा |
केश | खुले हुए एवं व्यवस्थित |
नेत्र | तीन |
हस्त | चार |
वस्त्र | लाल रंग के |
मुख के भाव | शांत व तेज चमक के साथ |
अस्त्र शस्त्र व् हाथों की मुद्रा | पुष्प रुपी पांच बाण, धनुष, अंकुश व फंदा |
अन्य प्रमुख विशेषता | भगवान शिव की नाभि से निकले कमल के आसन पर विराजमान |
त्रिपुर सुंदरी महाविद्या मंत्र | ऐ ह्नीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम: |
त्रिपुर सुंदरी माता का मंत्र: रूद्राक्ष माला से दस माला '। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।
भुवनेश्वरी
भुवनेश्वरी महाविद्या
मां भुवनेश्वरी चौथी महाविद्या है। भुवन का अर्थ है ब्रह्मांड और ईश्वरी का अर्थ है शासक इसीलिए माता भुवनेश्वरी ब्रह्मांड की शासक हैं। माता को राज राजेश्वरी के रूप में भी जानी जाती हैं और ब्रह्मांड की रक्षा करतीं हैं। पुत्र प्राप्ति के लिए की पूजा बहुत फलदायी मानी जाती है। यह शताक्षी और शाकम्भरी नाम से भी जानी जाती है। भुवनेश्वरी महाविद्या की आराधना से सूर्य के समान तेज ऊर्जा प्राप्ति होती है और जीवन में मान सम्मान मिलता है। भुवनेश्वरी को आदिशक्ति और मूल प्रकृति भी कहा गया है। भुवनेश्वरी ही शताक्षी और शाकम्भरी नाम से प्रसिद्ध हुई। पुत्र प्राप्ती के लिए लोग इनकी आराधना करते हैं। भूवन अर्थात इस संसार की स्वामिनी भुवनेश्वरी, जो ‘ह्रीं’ बीज मंत्र धारिणी हैं, वे भुवनेश्वरी ब्रह्मा की भी आधिष्ठात्री देवी हैं। महाविद्याओं में प्रमुख भुवनेश्वरी ज्ञान और शक्ति दोनों की समन्वित देवी मानी जाती हैं। जो भुवनेश्वरी सिद्धि प्राप्त करता है, उस साधक का आज्ञा चक्र जाग्रत होकर ज्ञान-शक्ति, चेतना-शक्ति, स्मरण-शक्ति अत्यन्त विकसित हो जाती है। भुवनेश्वरी को जगतधात्री अर्थात जगत-सुख प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। दरिद्रता नाश, कुबेर सिद्धि, रतिप्रीती प्राप्ति के लिए भुवनेश्वरी साधना उत्तम मानी है है। इस महाविद्या की आराधना एवं दीक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति की वाणी में सरस्वती का वास होता है। इस महाविद्या की दीक्षा प्राप्त कर भुवनेश्वरी साधना संपन्न करने से साधक को चतुर्वर्ग लाभ प्राप्त होता ही है। यह दीक्षा प्राप्त कर यदि भुवनेश्वरी साधना संपन्न करें तो निश्चित ही पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है।वर्ण | उगते सूर्य के समान तेज व सुनहरा |
केश | खुले हुए एवं अस्त-व्यस्त |
नेत्र | तीन |
हस्त | चार |
वस्त्र | लाल व पीले रंग के |
मुख के भाव | शांत व अपने भक्तों को देखता हुआ |
अस्त्र शस्त्र व् हाथों की मुद्रा | अंकुश, फंदा, अभय व वर मुद्रा |
अन्य प्रमुख विशेषता | इनका तेज सर्वाधिक है जिसमें कई कार्यों की शक्ति निहित हैं |
भुवनेश्वरी महाविद्या मंत्र | ह्नीं भुवनेश्वरीयै ह्नीं नम: |
भैरवी महाविद्या
महाविद्या भैरवी पांचवीं महाविद्या मानी जाती हैं। इनका रूप भी अत्यंत गंभीर व दुष्टों का संहार करने वाला हैं। भैरवअपने इस रूप के कारण इन्हें माता काली व भगवान शिव के अवतार के समकक्ष माना जाता हैं।
तांत्रिक समस्याओं का एक ही साधन है माँ भैरवी की आराधना करने से विवाह में आई बाधाओं से भी मुक्ति मिलती है। भैरवी की उपासना से व्यक्ति से दुष्ट प्रभावों से मुक्ति मिलती है। इनकी पूजा से व्यापार में लगातार बढ़ोतरी और धन सम्पदा की प्राप्ति होती है।
भैरवी देवी का एक क्रुद्ध रूप है जो प्रकृति में मां काली से शायद ही अभी वाच्य है। देवी भैरवी भैरव के समान ही हैं जोमहादेव का एक उग्र रूप है जो सर्वनाश से जुड़ा हुआ है। इनका एक नाम चंडिका भी हैं क्योंकि इनका प्राकट्य चंड व मुंड नाम के दो राक्षसों का सेनासहित वध करने के लिए भी हुआ था।भैरवी के नाना प्रकार के भेद बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी तथा षटकुटा भैरवी आदि। त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता हैं। यह साधक को युक्ति और मुक्ति दोनों ही प्रदान करती है। इसकी साधना से षोडश कला निपुण सन्तान की प्राप्ति होती है। जल, थल और नभ में उसका वर्चस्व कायम होता है। आजीविका और व्यापार में इतनी वृद्धि होती है कि व्यक्ति संसार भर में धन श्रेष्ठ यानि सर्वाधिक धनी बनकर सुख भोग करता है।
भूत-प्रेत एवं इतर योनियों द्वारा बाधा आने पर जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। ग्रामीण अंचलों में तथा पिछडे क्षेत्रों के साथ ही सभ्य समाज में भी इस प्रकार के कई हादसे सामने आते है, जब की पूरा का पूरा घर ही इन बाधाओं के कारण बर्बादी के कगार पर आकर खडा हो गया हो। त्रिपुर भैरवी दीक्षा से जहां प्रेत बाधा से मुक्ति प्राप्त होती है, वही शारीरिक दुर्बलता भी समाप्त होती है, व्यक्ति का स्वास्थ्य निखारने लगता है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक में आत्म शक्ति त्वरित रूप से जाग्रत होने लगती है, और बड़ी से बड़ी परिस्थियोंतियों में भी साधक आसानी से विजय प्राप्त कर लेता है, असाध्य और दुष्कर से दुष्कर कार्यों को भी पूर्ण कर लेता है। दीक्षा प्राप्त होने पर साधक किसी भी स्थान पर निश्चिंत, निर्भय आ जा सकता है, ये इतर योनियां स्वयं ही ऐसे साधकों से भय रखती है।
वर्ण | काला |
केश | खुले हुए एवं अस्त-व्यस्त |
नेत्र | तीन |
हस्त | चार |
वस्त्र | लाल व सुनहरे |
मुख के भाव | खड्ग, तलवार, राक्षस की खोपड़ी व अभय मुद्रा |
अस्त्र शस्त्र व् हाथों की मुद्रा | क्रोधित |
अन्य प्रमुख विशेषता | राक्षसों की खोपड़ियों के आसन पर विराजमान हैं, जीभ लंबी, रक्तरंजित व बाहर निकली हुई हैं |
भैरवी महाविद्या मंत्र | ह्नीं भैरवी क्लौं ह्नीं स्वाहा |

छिन्नमस्ता महाविद्या 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
छिन्नमस्ता महाविद्या
10 महाविद्या देवी छिन्नमस्ता का छठा स्वरूप है उन्हें प्रचंड चंडिका के नाम से भी जाना जाता है। देवी छिन्नमस्ता रूप माँ के सभी रूपों में सबसे अलग हैं क्योंकि इसमें देवी ने अपने एक हाथ में किसी राक्षस की खोपड़ी नही बल्कि अपना ही मस्तक पकड़े हुए खड़ी हैं। जब माता दुर्गा ने अपनी दो सेविकाओं जया व विजया के साथ पर स्नान करने गयी थी।स्नान करने के पश्चात तीनों को भूख लगी। दोनों सेविकाओं के द्वारा बार-बार भोजन की विनती करने पर माता ने अपना ही मस्तक धड़ से काटकर अलग कर दिया व उसके रक्तपान से सभी की भूख शांत की थी। इनका स्वरूप कटा हुआ सिर और बहती हुई रक्त की तीन धाराएं से सुशोभित रहता है। इस महाविद्या की उपासना शांत मन से करने पर शांत स्वरूप और उग्र रूप में उपासना करने पर देवी के उग्र रूप के दर्शन होते है। छिन्नमस्तिके का मंदिर झारखंड की राजधानी रांची में स्थिति है। कामाख्या के बाद यह दूसरा सबसे लोकप्रिय शक्तिपीठ है।वर्ण | गुड़हल के समान लाल |
केश | खुले हुए |
नेत्र | तीन |
हस्त | दो |
वस्त्र | नग्न, केवल आभूषण पहने हुए |
मुख के भाव | अपना ही रक्त पीते हुए |
अस्त्र शस्त्र व् हाथों की मुद्रा | खड्ग व अपना कटा हुआ सिर |
अन्य प्रमुख विशेषता | गले में नरमुंडों की माला पहने हुए हैं। धड़ में से तीन रक्त की धाराएँ निकल रही हैं, जिसमें से दो धाराएँ पास में खड़ी सेविकाएँ पी रही हैं। मैथुन करते हुए जोड़े के ऊपर खड़ी हैं। |
छिन्नमस्तिका महाविद्या मंत्र | श्रीं ह्नीं ऎं वज्र वैरोचानियै ह्नीं फट स्वाहा |
माता का स्वरूप अतयंत गोपनीय है। चतुर्थ संध्याकाल में मां छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती की सिद्ध प्राप्त हो जाती है। कृष्ण और रक्त गुणों की देवियां इनकी सहचरी हैं। पलास और बेलपत्रों से छिन्नमस्ता महाविद्या की सिद्धि की जाती है। इससे प्राप्त सिद्धियां मिलने से लेखन बुद्धि ज्ञान बढ़ जाता है। शरीर रोग मुक्त होताते हैं। सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शत्रु परास्त होते हैं। यदि साधक योग, ध्यान और शास्त्रार्थ में साधक पारंगत होकर विख्यात हो जाता है।
भगवती छिन्नमस्ता के कटे सर को देखकर यद्यपि मन में भय का संचार अवश्य होता है, परन्तु यह अत्यन्त उच्चकोटि की महाविद्या दीक्षा है। यदि शत्रु हावी हो, बने हुए कार्य बिगड़ जाते हों, या किसी प्रकार का आपके ऊपर कोई तंत्र प्रयोग हो, तो यह दीक्षा अत्यन्त प्रभावी है। इस दीक्षा द्वारा कारोबार में सुदृढ़ता प्राप्त होती है, आर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैं, साथ ही व्यक्ति के शरीर का कायाकल्प भी होना प्रारम्भ हो जाता है। इस साधना द्वारा उच्चकोटि की साधनाओं का मार्ग प्रशस्त हो जाता है, तथा उसे मौसम अथवा सर्दी का भी विशेष प्रभाव नहीं पङता है। छीन्नमस्ता माता का मंत्र रूद्राक्ष माला से दस माला प्रतिदिन 'श्रीं ह्रीं ऎं वज्र वैरोचानियै ह्नीं फट स्वाहा' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।
धूमावती महाविद्या
महाविद्या धूमावती सातवीं महाविद्या मानी जाती हैं । इनका रूप अत्यंत दुखदायी, बूढ़ा, दरिद्र, व्याकुल व भूखा हैं। महाविद्या धूमावती का यह रूप शिवजी के श्रापस्वरुप विधवा भी हैं। इनके अवगुणों के कारण इसे अलक्ष्मी व ज्येष्ठा भी कहा जाता है। प्रकृति में उनकी तुलना देवी अलक्ष्मी, देवी जेष्ठा और देवी नीर्ती के साथ की जाती है। ये तीनो देवियां नकारात्मक गुणों का अवतार हैं लेकिन साथ ही वर्ष के एक विशेष समय पर उनकी पूजा भी की जाती है। धूमावती का कोई स्वामी नहीं है। इसलिए यह विधवा माता मानी गई है। इनकी साधना से जीवन में निडरता और निश्चंतता आती है। इनकी साधना या प्रार्थना से आत्मबल का विकास होता है। मां धूमावती महाशक्ति स्वयं नियंत्रिका हैं। ऋग्वेद में रात्रिसूक्त में इन्हें 'सुतरा' कहा गया है। अर्थात ये सुखपूर्वक तारने योग्य हैं। इन्हें अभाव और संकट को दूर करने वाली मां कहा गया है। इस महाविद्या की सिद्धि के लिए तिल मिश्रित घी से होम किया जाता है। धूमावती महाविद्या के लिए यह भी जरूरी है कि व्यक्ति सात्विक और नियम संयम और सत्यनिष्ठा को पालन करने वाला लोभ-लालच से दूर रहें। शराब और मांस को छूए तक नहीं। धूमावती माता को अभाव और संकट को दूर करने वाली माता कहते है। इनका कोई भी स्वामी नहीं है। इनकी साधना से व्यक्ति की पहचान महाप्रतापी और सिद्ध पुरूष के रूप में होती है।इन्हें ‘सुतरा’ कहा गया है।वर्ण | श्वेत |
केश | खुले, मैले व अस्त-व्यस्त |
नेत्र | दो |
हस्त | दो |
वस्त्र | श्वेत |
मुख के भाव | थकान, संशय, दुखी, व्याकुल, बेचैन |
अस्त्र शस्त्र व् हाथों की मुद्रा | टोकरी व अभय मुद्रा |
अन्य प्रमुख विशेषता | अत्यंत बूढ़ा एवं झुर्रियों वाला शरीर, घोड़े के रथ पर विराजमान जिसके शीर्ष पर कौवा बैठा है |
धूमावती महाविद्या मंत्र | ऊँ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा: |

बगलामुखी महाविद्या
बगलामुखी 10 महाविद्याओं में 8वीं महाविद्या है और इनको स्तंभन शक्ति की देवी भी माना जाता है। मां बगलामुखी को माँ पितांबरा के नाम से भी जाना जाता है। माँ पितांबरा एक ऐसा स्वरूप है जो पीत अर्थात पीला वस्त्रों से, पीत आभूषणों से, स्वर्ण आभूषणों से, और पीत पुष्पों से सुसज्जित है। इस रूप में देवी एक मृत शरीर पर बैठी हुई अपने एक हाथ से राक्षस की जिव्हा पकड़े हुई हैं। एक बार सौराष्ट्र में भयंकर तूफान ने बहुत तबाही मचाई थी। तब सभी देवताओं ने माँ से सहायता प्राप्ति की विनती की। यह देखकर माँ का एक रूप हरिद्र सरोवर से प्रकट हुआ और इस तूफान को शांत किया। उसके बाद से ही मातारानी बगलामुखीरूप प्रचलन में आया। माता बगलामुखी की साधना युद्ध में विजय होने और शत्रुओं के नाश के लिए की जाती है। बगला मुखी के देश में तीन ही स्थान है। कृष्ण और अर्जुन ने महाभातर के युद्ध के पूर्व माता बगलामुखी की पूजा अर्चना की थी। इनकी साधना शत्रु भय से मुक्ति और वाक् सिद्धि के लिए की जाती है। बगलामुखी की साधना दुश्मन के भय से मुक्ति और वाक् सिद्धि के लिए की जाती है। जो साधक में इनकी साधना करता है वह हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है। महाभारत के युद्ध में कृष्ण और ने कौरवों पर विजय हासिल करने के लिए माता बगलामुखी की पूजा अर्चना की थी।वर्ण | सुनहरा |
केश | खुले हुए एवं अस्त-व्यस्त |
नेत्र | तीन |
हस्त | दो |
वस्त्र | पीले |
मुख के भाव | डराने वाले |
अस्त्र शस्त्र व् हाथों की मुद्रा | बेलन के आकार का शस्त्र व राक्षस की जिव्हा |
अन्य प्रमुख विशेषता | गले व कमर में राक्षसों की मुण्डमाल, जीभ अत्यधिक लंबी, एवं रक्त से भरी हुई। |
बगलामुखी महाविद्या मंत्र | ऊँ ह्नीं बगुलामुखी देव्यै ह्नीं ओम नम: (1) ह्मीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्मीं ॐ स्वाहा (2) |

मातंगी महाविद्या
महाविद्या मातंगी नौवीं महाविद्या मानी जाती हैं । महाविद्या मातंगी का यह रूप सबसे अनोखा हैं क्योंकि आपने कभी नही सुना होगा कि भगवान को झूठन का भोग लगाया जाता हो लेकिन महाविद्या मातंगी को हमेशा झूठन का भोग लगाया जाता है। महाविद्याओं में 9वीं देवी मातंगी वैदिक सरस्वती का तांत्रिक रूप है और श्री कुल के अंतर्गत पूजी जाती हैं। एक बार जब भगवान शिव व माता विष्णु व का दिया हुआ भोजन कर रहे थे तब उनके हाथ से भोजन के कुछ अंश नीचे गिर गए। उसी झूठन में से पार्वती का लक्ष्मी प्राकट्य हुआ। इसी कारण महाविद्या मातंगी के इस रूप को हमेशा झूठन का भोग लगाया जाता हैं। मतंग भगवान शिव का भी एक नाम है। जो भक्त मातंगी महाविद्या की सिद्धि प्राप्त करता है वह खेल, कला और संगीत के कौशल से दुनिया को अपने वश में कर लेता है।मतंग शिव का नाम है। शिव की यह शक्ति असुरों को मोहित करने वाली और साधकों को अभिष्ट फल देने वाली है। गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए लोग इनकी पूजा करते हैं। अक्षय तृतीया अर्थात वैशाख शुक्ल की तृतीया को इनकी जयंती आती है।यह श्याम वर्ण और चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करती हैं। यह पूर्णतया वाग्देवी की ही पूर्ति हैं। चार भुजाएं चार वेद हैं। मां मातंगी वैदिकों की सरस्वती हैं। पलास और मल्लिका पुष्पों से युक्त बेलपत्रों की पूजा करने से व्यक्ति के अंदर आकर्षण और स्तम्भन शक्ति का विकास होता है। ऐसा व्यक्ति जो मातंगी महाविद्या की सिद्धि प्राप्त करेगा, वह अपने क्रीड़ा कौशल से या कला संगीत से दुनिया को अपने वश में कर लेता है। वशीकरण में भी यह महाविद्या कारगर होती है।वर्ण | गहरा हरा |
केश | खुले हुए व व्यवस्थित |
नेत्र | तीन |
हस्त | चार |
वस्त्र | लाल |
मुख के भाव | आनंदमयी एवं शांत |
अस्त्र शस्त्र व् हाथों की मुद्रा | अंकुश, फंदा, तलवार, एवं अभय मुद्रा |
अन्य प्रमुख विशेषता | इनके हाथों में देवी सरस्वती के सामान वीणा रखी हुई है, इसलिए इन्हे तांत्रिक सरस्वती भी कहते हैं |
मातंगी महाविद्या मंत्र | ऊँ ह्नीं ऐ भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहा: |
