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यज्ञोपवीत यानी जनेऊ

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यज्ञोपवीत यानी जनेऊ

यह बाह्णाणो का मुख्य त्योहार होता है..

आचार्या अंजना ज्योतिषविद: जनेऊ धारण करते है उस पर तीन गांठ लगी होती है । इसका तातपर्य यह है हमे तीन बंधन जो ग्रन्थियों के रूप में है ,को खोलने का महत्वपूर्ण कार्य जीवन रहते यह तीन बंधन है, यह तीन ग्रन्थिया ब्रह्म ग्रन्थि ,विष्णु ग्रन्थि , ओर रुद्र ग्रन्थि । ब्रह्म ग्रन्थि का स्थान जननेन्द्रिय मूल-मूलाधार माना गया है। यह उत्पादन क्षेत्र है। मनुष्य शरीर की उत्पत्ति इसी केन्द्र की हलचलों से होती है।

ब्रह्म ग्रन्थि अर्थात् सत

  सृष्टि उत्पन्न करते हैं। इसलिए उन्हीं की तुलना दायित्व वहन करने वाले इस क्षेत्र पर ब्रह्मा का अधिकार माना गया है। दूसरा नाभि चक्र है। गर्भावस्था में प्राणी माता की नाल से जुड़ा रहता है और आकार लेता है।

 विष्णु ग्रन्थिअर्थात् रज

प्रसव के उपरान्त भी पेट ही पाचन का काम करता है,ओर पोषण करता है , रक्त बनाता है। पोषण के दायित्व पेट के ऊपर आ जाते हैं। इसलिए यह विष्णु क्षेत्र है। पालनकर्ता विष्णु ही माने गये हैं।

    रुद्र ग्रन्थि अर्थात् तम,

तीसरा केन्द्र मस्तिष्क है। यहाँ बुद्धि रहती है। उसी से अनौचित्य का संहार होता है। जीवन में परिवर्तन आता है। नर से नारायण बनाने की क्षमता इसी में है।अभाव अज्ञान, अशक्ति, से निपटने वाला त्रिशूल भी यहाँ है। इसलिए मस्तिष्क को रुद्र का अधिकार क्षेत्र सही माना गया है। कैलाश सहस्रार चक्र है और उसके इर्द-गिर्द भरा हुआ ग्रेमैटर मानसरोवर। कैदी तीन जगह से बँधा होता है। हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी, गले में । योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पाँच भागों में बंटा है जिन्हें पंचकोश कहते हैं। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के विभिन्न तल के समान होते हैं। विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अनुभूति होती है। प्रत्येक कोश का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। ये पाँच कोश हैं... अन्नमय कोश - अन्न तथा भोजन से निर्मित, शरीर और मस्तिष्क प्राणमय कोश - प्राणों से बना मनोमय कोश - मन से बना विज्ञानमय कोश - अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना आनंदमय कोश - आनन्दानुभूति से बना विज्ञानमय कोश के अन्तर्गत तीन बन्धन हैं, जो पंच भौतिक शरीर न रहने पर भी देव, गंधर्व, यक्ष, भूत, पिशाच आदि की योनियों में भी वैसा ही बन्धन बांधे रहते हैं। जैसा कि शरीरधारी को होता है। साधक की जब विज्ञानमय कोश में स्थिति होती है तो उसे ऐसा अनुभव होता है मानों उसके भीतर तीन कठोर, गठीली, चमकदार, हलचल करती हुई, हलकी, गांठें हैं। इनमें से एक गांठ मूत्राशय के समीप, दूसरी आमाशय के ऊर्ध्व भाग में और तीसरी मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में विदित होती है। यही तीन ग्रंथियां ,जीव को बांधे हुए हैं । जब ये खुल जाती हैं ,तो मुक्ति का अधिकार अपने आप मिल जाता है। इन रत्न -राशियों के मिलते ही शक्ति , सम्पनता ,और प्रज्ञा का अटूट भण्डार हाथ में आ जाता है। ये शक्तियां सम - दर्शी हैं । रावण जैसे असुरों ने भी शंकर जी से वरदान पाए परन्तु अनेक देवताओं को भी यह सफलता नहीं मिली। इसमें साधक का पुरुषार्थ ही प्रधान है। यह तीनों ही पीठ के मध्य भाग में मेरुदंड के समीप होती हैं। इन गांठ में से मूत्राशय वाली ग्रन्थि को रुद्र ग्रन्थि, आमाशय वाली को विष्णु ग्रंथि और सिर वाली को ब्रह्म ग्रन्थि कहते हैं। इन्हीं तीन को दूसरे शब्दों में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती भी कहते हैं। यह तीन बन्धन-ग्रन्थियां, रुद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि, ब्रह्म ग्रन्थि के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्हें तीन गुण भी कह सकते हैं रुद्र-ग्रंथि-अर्थात् तम, विष्णु ग्रन्थि अर्थात् रज, ब्रह्म ग्रन्थि अर्थात् सत। इन तीनों गुणों से अतीत हो जाने पर, ऊंचा उठ जाने पर आत्मा शान्ति और आनन्द का अधिकारी होता है। इन तीन ग्रन्थियों को खोलने के महत्वपूर्ण कार्य को ध्यान में रखने को तीन तार का यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।

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