
आत्मा पुरुषव्याघ्र भ्रुवोरन्तरमाश्रित:। ०१
नरश्रेष्ठ! आत्मा का स्थान दोनों भौंहों के बीच में है।
आत्मा रुद्रो हृदये मानवानाम्। ०२
मानवों के हृदय में रुद्र आत्मा के रूप में रहता है।
श्रितो मूर्धानमात्मा। ०३
आत्मा का स्थान मस्तक में है।
मनश्चापि सदा युड़्क्ते भूतात्मा हृदयाश्रित:।०४
हृदय में रहने वाला जीवात्मा सदा मन पर शासन
किया करता है।।
आत्मज्ञानं परं ज्ञानम्।- ०१
आत्मज्ञान परम ज्ञान है।
आत्मनस्तु क्रियोपायो नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात्। - ०२
इन्द्रियों पर नियंत्रण से दूसरा आत्मा के ज्ञान का
कोई उपाय नहीं है।
आत्मा सर्वस्य भाजनम्। - ०३
आत्मा (शरीर) को ही सब सुख या दु:ख मिलते हैं।
आत्मा ह्येक: सुखदु:खस्य
भोक्ता । - ०४
आत्मा (मनुष्य) अकेला ही सुख-दु:ख का भोग
करता है।
अदृष्टपूर्वश्चक्षुर्भ्यां न चासौ
तावता - ०५
आँखों से नहीं देखा गया इतने से नहीं कह सकते
कि आत्मा है ही नहीं
सर्वा ह्यात्मनि देवता:।- ०६
आत्मा में सब देवता रहते हैं।
न चात्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियै: कामगोचरै:। - ०७
विषयों में आसक्त इंद्रियों के द्वारा आत्मा का दर्शन
नहीं हो सकता।
यदा तु बुध्यतेऽऽत्मानं तदा भवति केवल:। -०८
ऋजु यदि आत्मा को जान लेता है तो मुक्त हो जाता है।
बुद्धिप्रदीपेन शक्य आत्मा निरीक्षितुम्। - ०९
बुद्धिरूपी दीपक के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार
किया जा सकता है।
कथं नाम भवेद् द्वेष्य आत्मा लोकस्य कस्यचित्। -१०
कोई भी व्यक्ति अपने आप से कैसे द्वेष कर सकता है।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:। -११
आत्मा स्वयं ही अपना बंधु है और अपना शत्रु भी
स्वयं ही है।
बुद्धिरैश्वर्यमाचष्टे क्षेत्रज्ञश्य च उच्यते। -१२
बुद्धि जिसके ऐश्वर्य को बताती है वह आत्मा ही है।
न ह्यामा शक्यते हन्तुं दृष्टान्तोपगतो ह्यसौ। -१३
अपने आप को कोई छिपा नहीं सकता, अपने आप
पता चल जाता है।
न ह्यात्मन: प्रियतरं किंचिदस्तीह निश्चितम्। -१४
यह निश्चित है कि संसार में अपने आत्मा से अधिक
प्रिय कुछ नहीं हैं।
सर्वेष्वेवर्षिधर्मेषु ज्ञेयोऽऽत्मा संयतेन्द्रियै:। -१५
सभी ऋषि धर्मों में इन्द्रिय संयम के द्वारा आत्मा को जानने योग्य कहा है।।
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं
तदु सुप्तस्य तथैति ।
दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं
तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।-
~~हे परमात्मा ! जाग्रत अवस्था में जो मन दूर तक चला जाता है और सुप्तावस्था में भी दूर तक चला जाता है, वही मन इन्द्रियों रुपी ज्योतियों की एक मात्र ज्योति है अर्थात् इंद्रियों को प्रकाशित करने वाली चेतनः शक्तिः है एव जो मन इंद्रियों का प्रकाशक है, ऐसा हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो !
व्याख्यां :-----
शिवसंकल्पसूक्त के प्रथम मंत्र में ऋषि कहते हैं कि
जाग्रत अवस्था में मन दूर तक गमन करता है।
हमेशा सक्रिय रहना उसका स्वभाव है और उसकी
गति की कोई सीमा भी नहीं है।
मन इतनी अधिक क्षमता से युक्त है कि एक स्थान पर स्थित हो कर भी सुदूर क्षितिज के परले पार पहुंच जाता है।
वेगवान पदार्थों में वह सबसे अधिक वेगवान है।
चंद्रमाँ मनसो जातः- यह श्रुतिवक्य है।
उपनिषदों में कहा गया है कि मन ही चन्द्रमा है। मन ही यज्ञ का ब्रह्मा है। मृत्यु भी समान है। यहाँ मन और मन में उभरे उद्धरण की तीव्र तीव्र और अनन्त गति की ओर संकेत है ।
मन और मन के विचार को घनीभूत करके कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है।
उसे किसी आधार की आवश्यकता नहीं होती। वस्तुत: मन स्थिर होता है जब उसमें कोई घटना नहीं होती और वह विक्षेप से अनुपयोगी हो जाता है।
विषयों से विभ्रांत मन की स्थिति प्राप्त होती है।
अस्थिर व चंचल मनुष्य को मुक्त नहीं होने देता और नए नए बंधनों में बांधता चला जाता है।
जाग्रत अवस्था में जीवन-यापन करने के लिए लोक-व्यवहार एवं जिम्मेवारी प्रपंचों में उलझा रहता है, इसलिए दूर तक निकल जाता है, क्योंकि यही मन व्यक्ति को कर्म करने की प्रेरणा देता है।
गायत्र्युपनिषद् की तृतीय कंदिका के प्रथम श्लोक में कहा गया है ' मन एव सविता' अर्थात मन ही सविता या प्रेरक तत्व है।
मन की ये भंग सुप्तावस्था में भी दिखाई देता है। सुप्त अवस्था में मन के शांत होने के कारण मन को अद्भुत शक्ति मिलती है।
कहते हैं कि सोते समय वह आपकी रचना से संयुक्त होता है, जो वास्तव में शांति का स्रोत है।
नींद में अनंत के साथ समरसता है ।” यहाँ से प्राप्त शांति के आने वाले दिन की यात्रा का पाथेय बनता है।
परमात्मा से प्राप्त सद्य शांति के अभाव को कोई भी भौतिक साधन पूरा नहीं कर सकता।
यह बात और है कि जाग जाने पर सप्तावस्था की बातें याद नहीं रहतीं, पूर्वभूत होती है केवल शांति, क्योंकि वह आध्यात्मिक क्षेत्र से प्रकट होती है।
ऋषियों ने परमात्मा से प्रार्थना करते हुए मन को इंद्रियों का प्रकाशक कहा है;---
ज्योतिषां ज्योतिरेकम्
मन के सभी इन्द्रियां अपने विषय का ज्ञान ग्रहण करती हैं।
स्वादना नहीं अपितु मन लेता है, नयनाभिराम दृश्य मन को प्रसन्न करने वाले अन्यथा अमृत करती चंद्रकिरणें करती हुई क्रिया
होती है ।
वाक् इन्द्रिय वही बोली है व श्रवणेंद्रिय वही सुनती हैं जो मन प्रेरित करता है। यही मन स्पर्शेंद्रिय से प्राप्त संवेदनों को सुखदुःखात्मक, मृदु-कठोर मनवाता है।
सब इन्द्रियां निज कार्य करती हैं, वह संकल्प के ग्रहण में मन की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, जिसे नकारा नहीं जा सकता।
मनः कृतं कृतं लोके न शरीरं कृतं कृतं :----
जग में मन द्वारा हुआ ही कृत कर्म है, न कि शरीर द्वारा किया गया। यह मन जीव का दिव्य माध्यम है, इन्द्रियों का प्रवर्तक है मन को ईश्वरीय छठे इन्द्रिय कथन हैं और यह छठी इन्द्रिय अन्य सभी इन्द्रयों से कहीं अधिक प्रचंड है।
आत्मा अनुभवः कराने के लिए यह इन्द्रियां सहयोगी हैं।
जिन्हें 'ज्योतियां' कह कर कह रही हैं, उनका प्रकाशक मन ही है।
यजुर्वेद के ऋषियों ने मानव मन के भीतर स्थित इस दिव्य-ज्योति को देखा व प्रमाण है, ।
इसलिए उन्हें ज्योतिषां ज्योतिरेकम् कहते हुए ऋषि प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मा! ऐसा हमारा मन श्रेष्ठ और कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ।