ईश्वर का यह नियम है, कि जो भी कोई व्यक्ति संसार में आता है, उसे एक न एक दिन जाना ही पड़ता है। कोई देर से जाता है, तो कोई जल्दी चला जाता है। कब कौन चला जाएगा, इसकी किसी को पूर्व सूचना नहीं होती। अचानक कभी भी कोई भी जा सकता है। "यह संसार का अटल सत्य है।" जिसे हम सबको न चाहते हुए भी स्वीकार करना पड़ता है।"
यह ईश्वरीय विधान है। अब ईश्वर के विधान को स्वीकार तो करना ही पड़ेगा, चाहे प्रेम से स्वीकार करें, चाहे दुखी होकर। फिर भी जो ईश्वर का विधान है, उसे प्रेम पूर्वक, धैर्य पूर्वक स्वीकार करना ही अच्छा होता है। इससे व्यक्ति का दुख कम हो जाता है, और वह अपने भविष्य को संभाल लेता है। अतः इस घटना को, संसार के अटल सत्य को, ईश्वर से शांति सद्बुद्धि धैर्य आदि की प्रार्थना करते हुए प्रेम पूर्वक स्वीकार करें।
मृत्यु की घटना होने पर, परिवार में सबको मेरा यह संदेश देवें ---
वेदों में बताया है, कि -- यह शरीर अनित्य है। परिवर्तन संसार का नियम है। जो आज है, पता नहीं, कल वह रहेगा या नहीं। "जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है।" इस नियम को कोई भी बदल नहीं सकता। "आत्मा तो अजर अमर अविनाशी है। न उसका कभी जन्म होता है, और न ही मृत्यु। मृत्यु केवल शरीर की होती है। जो चला गया, वह आत्मा ही था, शरीर नहीं। वह तो आज भी अमर है, और सदा अमर ही रहेगा। इसलिए उसकी मृत्यु नहीं हुई, मृत्यु केवल शरीर की हुई है, जिसे कोई रोक नहीं सकता। यह अटल सत्य है।"
जो लोग ऐसे सत्य को स्वीकार कर लेते हैं, वे ऐसी अवश्यंभावी घटनाओं के होने पर दुखी नहीं होते, या कम दुखी होते हैं। वे ईश्वर का सहारा लेकर, धैर्य को धारण करके, स्वयं को संतुलित कर लेते हैं, और दूसरों को भी संभालते हैं। "सभी पारिवारिक जन कृपया इस संकटकाल में एक दूसरे का सहारा बनें।"
इस कठिन समय में धैर्य को धारण करें, घबरायें नहीं । ईश्वर से इस प्रकार से प्रार्थना करें -- "ओम् सहोसि सहो मयि धेहि।। हे ईश्वर ! आप बड़े सहनशील हैं । हमें भी सहनशक्ति दीजिए । हम इस दुख को धैर्य से सहन कर सकें।" इस मन्त्र से अधिक से अधिक प्रार्थना करें । ईश्वर आपको बहुत धैर्य, शक्ति और शान्ति देगा ।। और दिवंगत आत्मा के कर्मानुसार उसको उचित फल देगा।
"परिवार के सभी सदस्य दिवंगत आत्मा के उत्तम गुणों तथा उसके शुभ कर्मों का सम्मान करते हुए उसके जीवन से प्रेरणा लेकर उसके पदचिह्नों पर चलें। यही उसके प्रति परिवार की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।"
परिवारमें किसीकी मृत्यु हो जाय तो तीन काम करने चाहिये -
१. उसके नामसे नाम जप, कीर्तन, रामायण-पाठ, भागवत-पाठ आदि करो,
२. छोटे-छोटे गरीब बालकोंको मिठायी दो और
३. उसे भगवान् के पास देखो। ऐसा करनेसे आपको भी लाभ होगा और मृतकको भी।
आजकल हरेक व्यक्तिमें स्वार्थभाव बहुत अधिक बढ़ गया है। इसका परिणाम बड़ा भयंकर होगा।
अपना अथवा दूसरेका कल्याण त्यागसे ही होता है। दूसरोंपर त्यागका अधिक असर पड़ता है, बातोंका नहीं।
हिन्दू संस्कृति सेवाके लिये ही है। स्वार्थभाव छोड़कर सेवा करनेसे बन्धन छूटता है। जितना सेवा लोगे, उतना ही कर्जा बढ़ेगा। आफत बढ़ेगी। बन्धन स्वार्थमें है। स्वार्थी आदमीको रोना ही पड़ेगा, व्यवहारमें भी और परमार्थमें भी।
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संसारके सुखका त्याग करनेसे ही दुःखका त्याग होगा। हम सुखको नहीं छोड़ेंगे तो दुःख हमें नहीं छोड़ेगा। सुखकी इच्छा करनेवालेके पास सुख टिकता नहीं।
सुखकी इच्छा दुःखीको होती है। दुःख न रहे, आनन्द रहे तो फिर सुखकी इच्छा नहीं होगी। दुःखालय संसारमें सुख कहाँसे मिलेगा? यह शरीर सुख लेनेके लिये है ही नहीं।
यदि रुपयोंके त्यागका अभिमान होता है तो इसमें रुपयोंका ही महत्त्व हुआ। अन्तःकरणमें जिस वस्तुका महत्त्व होता है, उसीके त्यागका अभिमान होता है। क्या मल-मूत्रके त्यागका अभिमान होता है? रुपयोंके त्यागका अभिमान होता है तो वास्तवमें रुपयोंका त्याग हुआ नहीं।
लेनेसे ऋण चढ़ता है और देनेसे ऋण उतरता है। संसारी मनुष्य लेता है तो लेता है, देता है तो भी लेता है। साधक देता है तो देता है, लेता है तो भी देता है। सन्त-महात्मा देते हैं तो भी कृपा करते हैं, लेते हैं तो भी कृपा करते हैं।
नोट -- यदि आप इन बातों को स्वयं पर भी लागू करें,कि "मेरा भी शरीर ही मरेगा,मैं नहीं। मैं इस शरीर से अलग पदार्थ हूं। मैं आत्मा हूं,मैं अजर अमर हूं। मैं भी कभी नहीं मरूंगा।" यदि आप ऐसा चिंतन प्रतिदिन करें,तो आपको भी मृत्यु से डर नहीं लगेगा।जब मृत्यु आएगी,तो बड़ी शांति से प्रेम से संसार छोड़कर शरीर छोड़कर चले जाएंगे।"
