वर्तमान में एक विचार बहुत ही तीव्र गति से प्रचारित किया जा रहा है कि बचपन से लेकर युवावस्था तक मनुष्य को मजे करने चाहिए और अपने जीवन का आनंद लेना चाहिए। भगवान का नाम लेना और भगवान की पूजा वृद्धा अवस्था में करनी चाहिए।
यह बात अधिकतर मैकाले शिक्षा से शिक्षित हुए माता-पिता अपने बच्चों को सिखाते है। प्राचीन मत
परन्तु इस विषय में हमारे ग्रन्थ क्या कहते है?
विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय 17 में प्रह्लाद जी की कथा है। कथा की शुरुवात हिरण्यकशिपु के ब्रह्मा जी से वर प्राप्त करने तथा संसार में उसके भय के वर्णन से होती है। हिरण्यकशिपु के भय से देवगण स्वर्ग छोड़कर मनुष्य-शरीर धारणकर भूमण्डल में विचरते रहते थे। इसके बाद कथा में आगे बताते है कि हिरण्यकशिपु का प्रह्लाद नामक एक पुत्र था। पिता दैत्य स्वभाव वाला और पुत्र धर्मात्मा था। एक दिन पिता के कुछ पूछने पर प्रह्लाद ने श्री हरि की स्तुति की जिसे सुन कर हिरण्यकशिपु को क्रोध आया और उसने अपने पुत्र को मारने का आदेश दिया, तब कई असुर शस्त्र से प्रह्लाद जी पर वार करने लगे परन्तु उन्हें तनिक भी वेदना नहीं हुई। इस प्रकार हिरण्यकशिपु ने अनेक प्रकार से अपने पुत्र को मारने का प्रयास किया और हर प्रयास विफल रहा। तब पुरोहितगण ने कहा कि इसे हम समझाते है अगर नहीं समझा तो इसे मारने की कोई युक्ति हम निकाल लेंगे। तब गुरुकुल में प्रह्लाद जी, दैत्यकुलोत्पन्न असुर बालकों को परमार्थ का उपदेश देते है और उसी उपदेश में कुछ श्लोक आते है -
बाल्ये क्रीडनकासक्ता यौवने विषयोन्मुखाः ।
अज्ञा नयन्त्यशक्त्या च वार्द्धकं समुपस्थितम्॥
तस्माद्वाल्ये विवेकात्मा यतेत श्रेयसे सदा ।
ना संग्रहां बाल्ययौवनवृद्धाद्यैर्देहभावै
बालकाल मूर्ख लोग अपनी बाल्यावस्था में खेल-कूद में लगे रहते हैं, युवावस्था
में विषयों में फंस जाते हैं और बुढ़ापा
आनेपर उसे असमर्थता के कारण व्यर्थ ही काटते हैं। इसलिए विवेकी पुरुष को चाहिए कि देहकी बाल्य, यौवन और वृद्ध आदि अवस्थाओं की अपेक्षा न करके बाल्यावस्था से ही अपने कल्याण का यत्न करें। इन श्लोकों में स्पष्ट कहा गया है कि वृद्धावस्था की प्रतीक्षा ना करते हुए बाल्यकाल से ही अपने कल्याण का प्रयास करें। इसी बात को जगतगुरु आदिशंकराचार्य जी अपनी रचना भज गोविन्दम् में कहते है कि -
बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्ता
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥
(मनुष्य) बाल्यावस्था में खेलकूद में लगा रहता है, वयस्क होने पर तरुणी (स्त्री अथवा पत्नी) में आसक्त रहता है, और वृद्ध हो जाने पर तमाम चिंताओं से ग्रस्त रहता है। (विडंबना है) कि परब्रह्म (के चिंतन) में कभी संलिप्त नहीं होता है। एक तथ्य ये भी है कि, बचपन में जो सीख बच्चों को दी जाती उसे वें आजीवन पालन करते हैं। अगर बचपन से ही पूजा - पाठ और धर्मग्रंथों में रुचि उत्पन्न नहीं होने दी गई, जवानी में इसके लिए समय ही नहीं मिला तो बुढ़ापे में अचानक कोई धर्मात्मा बन जाएगा ऐसी आशा करना केवल अज्ञानता मात्र ही है। दिन भर में मात्र दस मिनट ही सही लेकिन अपनी संतानों को पूजा, जप आदि करने और धर्मग्रंथों के अध्ययन में रुचि लेने का अवसर अवश्य प्रदान करें।