शिव-शक्ति-सम्बन्ध" घोषित करता है--
"शिवशक्तिसमायोगाद जायते सृष्टि-कल्पना।"
अर्थात् शिवतत्व (पुरुष तत्व)
और शक्तितत्व ( स्त्रीतत्व) के संसर्ग से ही सृष्टि की कल्पना की जा सकती है। पुरुष तत्व विकर्षणात्मक है और स्त्री तत्व आकर्षणात्मक है और इस आकर्षण-विकर्षण के द्वंद्व ( समागम या मैथुन) से जिस शक्ति का जन्म हुआ है, वह शक्ति है--" काम-शक्ति"। काम-शक्ति ही आदिशक्ति है। आदिशक्ति का विकास मैथुन विषयक है अर्थात् "रति" या "आनंद" के लिए है। यही विश्ववासना है और विश्ववासना की मूर्ति "स्त्री" है। तंत्र जिसे आदिशक्ति, महाशक्ति, परमशक्ति या परमेश्वरी कहता है, वह एकमात्र यही "कामशक्ति" है। वह स्त्रीतत्व और पुरुषतत्व के संसर्ग में परिणत होती है। काम संसार की सभी प्रकार की वासनाओं के मूल में है।
इसी से "काम" को आदिदेव "कामदेव" की संज्ञा मिली। दोनों प्रकार की मौलिक ऊर्जाओं से अमूर्त जगत से मूर्त जगत का निर्माण हुआ है और दृश्यजगत--स्पर्श, रूप, रस, गंध, नाद आदि की मनोहारी छटा से संयुक्त अणु-परमाणुओं से बना हुआ है। इस दिशा में योग-विज्ञान, तंत्र-विज्ञान और भौतिक विज्ञान में किस सीमा तक सामंजस्य है ? स्थितिशील ऊर्जा की अभिव्यक्ति सूक्ष्मतम प्राणवायु के रूप में होती है जिसे वैज्ञानिक "ईथर" कहते हैं। यह ईथर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में समान रूप से व्याप्त है।
दोनों ऊर्जाओं के अकर्षणात्मक-विकर्षणात्मक द्वंद्व के फलस्वरूप तीन प्रकार की विद्युत् चुम्बकीय तरंगें उत्पन्न होती हैं जिन्हें विज्ञान "इलेक्ट्रॉन", "प्रोटॉन" और "न्यूट्रॉन" कहता है। इलेक्ट्रॉन ऋण विद्युत् चुम्बकीय तरंगें हैं, प्रोटॉन धन विद्युत् चुम्बकीय तरंगें हैं और न्यूट्रॉन विद्युत् विहीन चुम्बकीय तरंगें हैं। इन तीनों से अलग-अलग तीन प्रकार की मौलिक ऊर्जाओं का आविर्भाव होता है--पॉवर, फ़ोर्स और एनर्जी। तंत्र की सगुण उपासना भूमि में ये तीनों शक्तियां ही महासरस्वती, महाकाली और महालक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आगे चलकर ये ही तीनों महाशक्तियां क्रमसे वाक् शक्ति, प्राणशक्ति और मनःशक्ति के रूप में प्रकट होती हैं। इन्हीं तीनों के आश्रय से मानव के आतंरिक स्वरुप का गठन होता है और जीवन का भी निर्माण होता है।