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शुक्रवार – जीवन्तिका व्रत (षष्ठी)

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शुक्रवार – जीवन्तिका व्रत (षष्ठी)

श्रावण मास में शुक्ल पक्ष शुक्रवार के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त कर लेता है। संतान सुख और रक्षा के लिए करना चाहिए।

अत्यधिक प्रयत्न करने पर भी उसे पुत्र प्राप्ति नहीं हो सकी. उसकी सर्वगुणसंपन्न सुकेशी नामक भार्या थी. जब उसे संतान न हुई तब वह बड़ी चिंता में पड़ गई तब स्त्री-स्वभाव के कारण अति साहसयुक्त मनवाली उसने मासिक धर्म के समय प्रत्येक महीने में वस्त्र के टुकड़ों को अपने उदर पर बाँधकर उदर को बड़ा बना लिया और अपनी प्रसूति का अनुकरण करने वाली किसी अन्य गर्भिणी स्त्री को ढूंढने लगी.
भावी देवयोग से उसके पुरोहित की पत्नी गर्भिणी थी तब कपट करने वाली राजा की पत्नी ने किसी प्रसव कराने वाली को इस कार्य में लगा दिया और उसे एकांत में बहुत धन देकर वह रानी चली गई. उसके बाद रानी को गर्भिणी जानकार राजा ने उसका पुंसवन और अनवलोभन संस्कार किया. आठवाँ महीना होने पर सीमन्तोन्नयन-संस्कार के समय राजा अत्यंत हर्षित हुए. इसके बाद उस पुरोहित पत्नी का प्रसवकाल सुनकर वह रानी भी उसी के समान सभी प्रसव संबंधी चेष्टाएँ करने लगी. पुरोहित की पत्नी चूँकि पहली बार गर्भवती थी, अतः प्रसूति कार्य के प्रति वह अनभिज्ञ थी और केवल प्रसव कराने वाली दाई के ही कहने में स्थित थी तब उस दाई ने पुरोहित पत्नी के साथ छल करते हुए उसके नेत्रों पर पट्टी बाँध दी और प्रसव के समय उसके पैदा हुए पुत्र को किसी के हाथ से रानी के पास पहुंचा दिया।

 

इस बात को कोई भी नहीं जान सका. उसके बाद रानी ने उस पुत्र को लेकर यह घोषित कर दिया कि मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है. इन सब के बाद दाई ने पुरोहित की पत्नी के आँखों की पट्टी खोल दी. दाई अपने साथ माँस का एक पिंड लाई थी और उसने वह उसे दिखा दिया फिर उसके सामने आश्चर्य तथा दुःख प्रकट करने लगी कि यह कैसा अनिष्ट हो गया और कहने लगी कि अपने पुरोहित पति से इसकी शान्ति जरूर करवा लेना. कहने लगी कि संतान नहीं हुई कोई बात नहीं पर तुम जीवित हो यह अच्छी बात है. इस पर पुरोहित पत्नी को अपने प्रसव के स्पर्श चिंतन से बहुत संदेह हुआ।राजा ने पुत्र जन्म का समाचार सुन जातकर्म संस्कार कराया और ब्राह्मणों को हाथी, घोड़े तथा रथ आदि प्रदान किए. राजा ने कारागार में पड़े सभी कैदियों को प्रसन्नतापूर्वक मुक्त करा दिया. उसके बाद राजा ने सूतक के अंत में नामकर्म तथा अन्य सभी संस्कार किये, उन्होंने पुत्र का नाम प्रियव्रत रखा।

 

जीवंतिका शुक्रवार का व्रत नियम:

श्रावण मास के आने पर पुरोहित की पत्नी ने शुक्रवार के दिन भक्तिपूर्वक देवी जीवंतिका का पूजन किया. दीवार पर अनेक बालकों सहित देवी जीवंतिका की मूर्त्ति लिखकर पुष्प तथा माला से उनकी पूजा करके गोधूम की पीठि के बनाए गए पांच दीपक उनके सम्मुख उसने जलाए और स्वयं भी गोधूम का चूर्ण भक्षण किया और उनकी मूर्ति पर चावल फेंका और कहा – हे जीवन्ति ! हे करुणार्णवे ! जहां भी मेरा पुत्र विद्यमान हो आप उसकी रक्षा करना – यह प्रार्थना करके उसने कथा सुनकर यथाविधि नमस्कार किया तब जीवंतिका की कृपा से वह बालक दीर्घायु हो गया और वे देवी उसकी माता की श्रद्धा भक्ति के कारण दिन-रात उस बालक की रक्षा करने लगी.

जीवन्ति ने कहा – हे षष्ठी ! श्रावण मास में शुक्रवार को इसकी माता मेरे पूजन में रत रहती है और व्रत के संपूर्ण नियम का पालन करती है, वह सब मैं आपको बताती हूँ – वह हरे रंग का वस्त्र तथा कंचुकी नहीं पहनती और हाथ में उस रंग की चूड़ी भी नहीं धारण करती. वह चावल के धोने के जल को कभी नहीं लांघती, हरे पत्तों के मंडप के नीचे नहीं जाती और हरे वर्ण का होने के कारण करेले का शाक भी वह नहीं खाती है. यह सब वह मेरी प्रसन्नता के लिए करती है अतः मैं उसके पुत्र को किसी को मरने नहीं दूंगी।

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