रजस्वलाधर्म का पालन आजकल की स्त्रीयाँ क्यों नहीं करती ?
(१) स्कुलो में इन दिनो के समय अन्योन्य स्पर्श, लेखिनी , नोधपोथी, पुस्तक,पाटी आदि के स्पर्श से भगवती शारदा की अवहेलना करने पर शारदा सृजन की देवी ही "नि:शेष जाड्यापहा " की जगह "विशेष जाड्यता" देकर संकीर्णकलुषित बुद्धि कर देती हैं। इस तरह जिन दिनों में पालन आवश्यक था उस दिनों में पढाई यह एक महत्व का कारण हैं... जिसके कारण सत्यता पर मूँह मोड लेती हैं।
(२) शास्त्रदृष्ट्या लडकीओ को किसी विद्यालय में नहीं पढाया जाता था वे अपने ही घर स्वधर्मनिष्ठ पातिव्रता स्त्रीयों ,वृद्धाओ के पास ही अनेकानेक कलाएँ सिखती थी ,शास्त्र में ६४कलाओ का उल्लेख हैं। पातिव्रत्यधर्म, गृहस्थधर्म, प्रोषितधर्म आदि स्त्रीयों के उचित धर्म अक्षुण्ण परम्परा से ही प्राप्त होता रहता था । श्रृत्यनुसार स्त्रीयों में स्वाभाविकरूप से सोमसूर्याग्नि से भूक्तता होनेपर साडेसातवर्ष में ही एक होशीयार कुशल बन जाती हैं। स्त्रीयों का उपनयन ही विवाहसंस्कार हैं। पतिसेवा ही गुरुकुल वास हैं। गृहकार्य ही अग्निहोत्र हैं(मनु २/६७) -इस लिए स्त्रीयों के लिए कोई अलग से गुरुकुल नहीं थे।
(३) पहेले की स्त्रीयाँ नौकरी नहीं करती थी सिवा कि "दासी" । दासीयों को भी उन दिनों में छुट्टी मिल जाती थी। नौकरी करने वाली आधुनिक स्त्रीयाँ भी उचितधर्म का पालन नहीं कर सकती क्योंकि वहाँ अपनी नहीं चलती इसलिए स्वधर्मकर्तव्यविमूढ स्त्रीयों को "दासी" कहने में कोई असत्यता नहीं हैं।
(४) पहेले के समय दिनभर घरों में शैया,खटीया ढली हुई नहीं रहती थी । आजकल पुरेदिन सोफा,पलंग, बैड(खराब), ढले रहते हैं । जिसके कारण दो प्रकार से बुरी आदत पडती हैं (१) बिना समय लैटना ,सो जाना या सोते सोते काम करना (२) रजोधर्म समय घरमें उपयुक्त जगह की कमी हो जाना।
इस तरह पहिले के घरों या झोपडी में रहने वालो को जो घरो में जो रिक्तता मिलती थी वह आज टीवी, फ्रीझ, टेबल, सोफा, बैड , शौचालय आदि ने ले ली हैं । सोफा ,बैड आदि वह चीझ हैं कि जिसके कारण आजकल घरमें कोई भी बहार से आयागया पवित्र या अपवित्र , सूतकी आदि अवस्था का व्यक्ति उसे बैठने में उपयोग करते हैं इस के कारण स्पर्शास्पर्श विवेक भी लुप्त सा हो गया हैं।
वास्तुशास्त्र के अनुसार तो घरमें शौचालय का स्थान ही नहीं होना चाहिए क्योंकि घर का पुरे क्षेत्रफल विस्तार की जगह में वास्तुदेवताओ के भिन्न भिन्न पद का नित्य वास हैं, इसलिए गृहसदस्य और देवताओ के नित्यवास के कारण तो वस् धातु सार्थक हैं। *शौचालय का स्थान शस्यवती जमीन न हो तृण आदि से रिक्त हो वहाँ खड्डा करके मलत्याग किया जाता था, फिर उसगड्डे को मिट्टी आदि से ढंक दीया जाता था । सूर्यनारायण की धूप व जमीन की आंतरिक ऊष्मा के कारण वह मल सौखकर जमीनमें मिल जाता था , जो समय रहते पृथ्वी के थर में परिवर्तित होकर स्थलांतर हो जाता था।
जब की आज के शौचालयो में जल में ही मलत्याग और जल से ही मलशुद्धि करते हैं । जिसके कारण मल पुरी तरह से सौख भी नहीं पाता और पानी में घूलमिलकर गटरों द्वारा उसका निकास सिधे ही जलाशयो में हो रहा हैं यह विकृति नहीं तो क्या हैं? जलमिट्टी के संयोग का शौचविज्ञान शास्त्रीय हैं। #(सरकार के शौचालय अभियान जलाशयों की विकृतिकरण ही हैं , जबकि जहाँ खूल्ली जगहों में शौच करते हैं उस गाँव में मिथ्यातर्क देकर परम्परा को नष्ट भ्रष्ट नहीं करनी चाहिए, जिससे कम जलप्रदूषण हो । (पिता रक्षति कौमारे ००आदि व्यवस्था से तो स्त्रीयाँ प्रत्येक अवस्था में सुरक्षित ही थी, परंतु स्वतंत्र स्त्री अपनी सुरक्षा चाहे तो स्वयं अपनी सुरक्षा नहीं कर सकती यह भी शास्त्रो में उल्लेखनीय हैं। इसलिए बलात्कार आदि कुतर्क आजकल की स्वतंत्र स्त्री पर ही ज्यादा हो रहे हैं)*
(५)पहेले के मनुष्य ज्यादा कमरे भी न हो ऐसी झोपडी में रहकर भी अन्तर्पट आदि के माध्यम से भी रजोधर्म का पालन करते थे ,करवाते थे क्योंकि पहिले की स्त्रीयाँ केवल गृहिणी थी, वंदनीया थी ।
🚩 हर हर महादेव 🚩